नागरिकता इतिहास से सम्बन्धित चीज नहीं है। किसका इतिहास कितना पुराना उससे निर्णय नहीं किया जाता कौन नागरिक कौन नहीं। और नागरिक सब बराबर होते हैं। फर्स्ट क्लास, सेकंड क्लास, थर्ड क्लास नागरिकता नहीं बनाया जा सकता।
भारत में तो सबका औंठा छाप डिजिटल ले लिया गया है। भारतके सहयोगमें नेपाल में रह रहे सभी लोगों का उसी तरह डिजिटल करिए। औंठा छाप, आँख का भी लेते हैं रेटिना। और दोनों डाटाबेस को मैच करिए। भारतसे नेपाल लोग बहुत कम आते हैं। पहाड़ से भारी मात्रा में मधेस आते हैं और आए हैं। उससे ज्यादा भारत जाते हैं और जा रहे हैं। भारत तो महासागर है। फिर नेपाली को भारत में न सरकारी जागीर खाने में कोइ रोकटोक है न कुछ।
नेपालका का जो जनसंख्या था ७० साल पहले या जब पहली बार जनगणना हुवा होगा, और जो जनसंख्या बृद्धि दर रही है, वो मैंने हिसाब किया था एक बार। तो पता चला नेपालका जनसंख्या जितना होना चाहिए उससे दो करोड़ कम ही है। तो वो लोग कहाँ चले गए? महासागर में जा के विलीन हो गए। तो यथार्थ वो है।
औँलो उन्मुलन से पहले मधेस में पहाड़ी नहीं थे। अभी ४०% हैं। तो मधेस से तो आर्थिक रूपसे भारत आगे है। भारत और कितने गए होंगे? भारत ऐसा देश जहाँ राशन कार्ड सभी का बन जाता है। हात में आ गया राशन कार्ड तो वही परिचयपत्र का काम करता है। यानि कि नेपाली को भारत में कहीं नागरिकता दिखाना ही नहीं पड़ता है।
नेपाल में नागरिकता समस्या का समाधान यही है कि जिस तरह सेन्सस में घर घर जाते हैं उसी तरह घर घर जा के नागरिकता पत्र लोगों को प्रदान करिए। डिजिटल प्रविधि का प्रयोग करिए। भारत से सहयोग लिजिए। दोनों डाटाबेस को मैच करिए। नतिजा वही आएगा जो मेरा अनुमान है। नेपाल में जिन लोगों को वो कागज नहीं दिया जा रहा है वो यहाँ सदियों से हैं।
इसको फिजीकरण भी नहीं कहा जा सकता। फिजीकरण में तो स्थानीय फिजी वासी का नागरिकता छिना नहीं गया। नेपाल के तो स्थानीय मिथिलावासी को अपने ही घर में विदेशी कह देते हैं। ब्रिटिश ने भारत में भी वैसा नहीं किया। न ये फिजीकरण है न औपनिवेशीकरण। दोनों से बदतर स्थिति है। एक ढूँढना होगा। या कह सकते हैं मानव अधिकार हरण। क्यों कि नागरिकता मानव अधिकार है।
नेपाली नागरिक को नागरिकता पत्र से वंचित करने वाले प्रत्येक सीडीओ को तुरंत नौकरी से निकाला जाए क्यों कि नेपालकी संविधान मानव अधिकार की रक्षा करती है और सीडीओ ने संविधान की रक्षा की कसम खाइ है।