Saturday, February 27, 2021

संसद अधिवेशन शुरू हुँदा

संसद पुनर्स्थापना पछि अब के हुन्छ भन्ने प्रश्न खड़ा भएको छ। 

जसरी नेपालको संविधानले संसद विगठन गर्न नमिल्ने ठोस प्रावधान राखेको छ त्यसै गरी पार्टी फुटाउन नपाउने ठोस प्रावधान राखेको छ। पार्टी भित्र गुटबंदी होला, भएको पनि छ। तर पार्टी फुटाउन बड़ा गारहो पारिएको छ। मधेसी पार्टी हरु फुटेर पहाड़ी सत्ताधारीहरु त्यति सारहो चिन्तित भएका रहेछन। 

पार्टी फुटाउन चाहनेले संसदीय दलमा पनि र पार्टी केन्द्रीय समितिमा पनि कमसेकम ४०% देखाउनु पर्ने भनिएको छ। पुरानो संविधानमा संसदीय दलको ४०% भए पुग्ने भन्ने थियो। त्यही पुरानो नियम ल्याउन ओली ले अध्यादेश ल्याएका हुन र व्यापक विरोध भए पछि फिर्ता पनि लिएका हुन। भन्ने बेलामा मधेसी पार्टी फ़ोड़न ल्याएको भनेका थिए। तर मुख्य रूपले आफ्नै पार्टी फोड़न सजिलो होस भनेर ल्याउन खोजेका हुन। पुर्व प्रहरी प्रमुख देखि "म महेश" किताबका लेखक महेश जनकपुर पुगेर एउटा सांसदलाई अपहरण शैलीमा काठमाण्डु ल्याउन भ्याए। कत्रो खैलबैला भएथ्यो। पुर्व प्रधान मंत्री प्रहरी चौकी पुग्दा पनि प्रहरीले उजुरी लिन नमानेको। यो त पुर्व प्रधान न्यायधीश (सुशीला) न्याय का लागि सड़क जुलुसमा निस्के जस्तो। 

ओली ले महिनौं अगाडि प्रचण्डलाई "म ८-१० जना सांसद त मिलाइहाल्छु" भनेर धम्क्याएका थिए। अब त्यो धमकी कार्यान्वयन गर्न लागेको देखिन्छ। भनेको किनबेच नै भनिएको हो। 

नेपालको कानुन अनुसार जसलाई प्रचंड-माधव समुह भन्ने गरिएको छ त्योसँग बहुमत छ। त्यसैले त्यो नै पार्टी भयो। केन्द्रीय समितिमा दुई तिहाई बढ़ी र ९० जना सांसदले त अविश्वास प्रस्ताव नै दर्ता गर्न भ्यायेका। तर ओली ले संसद विगठन को सिफारिस गरेकोले त्यो पार्टीले ओली लाई साधारण सदस्य समेत बाट निकालेको अवस्था छ। कानुनतः ओली अब सांसद रहेनन। झापामा उप चुनाव हुने त भइसक्यो। 

ओली गुट भनेर चिनिने समुहले नया नेतृत्वमा आफ्नो गुट कायम राख्न सक्छ, त्यो गैर कानुनी हुने छैन। तर पार्टी फोड़ने अवस्था छैन। पार्टी छोड़ेर जानु भनेको आ-आफ्नो संसदीय सीट गुमाउनु हो। त्यसरी सीट गुमाउने गरी ८० जना ओली को पछि लाग्ने संभावना म देख्दिन। 

ओली ले हठ गरेका छन, म संसदीय दलको बैठक नै डाक्दिन, अनि कसरी हटाउँछौ मलाई संसदीय दल नेता बाट भनेका छन। यो त बड़ा अचम्मको सोच हो। हताश मानसिकता हो। नेकपा को संसदीय दलको बहुमतले नया नेता हप्तौं अगाडि चुनिसक्यो। बहुमत दलको संसदीय दलको नेता नै नरहे पछि ओली प्रधान मंत्री कसरी रहन सक्छन? 

यो पार्टी नफुट्ने प्रावधान थुप्रै कांग्रेसी हरुले पनि नबुझे जस्तो देखियो। हामीले प्रचंड-माधव लाई सहयोग नगरे कसैको सरकार बन्दैन, नेकपा दुई फ्याक हुन्छ र कांग्रेस लाई चुनाव भएर फाइदा हुन्छ भन्ने सोंच देखिन्छ। चुनाव त अहिले कसरी पो हुन्छ र? चुनाव नहुने निर्णय भर्खर सर्वोच्चले गरेको होइन र? 

ओली ले ८-१० जना सांसद आफुतिर मिलाउने कुरा पनि संभव छैन। जो मान्छे नेकपा को साधारण सदस्य पनि होइन उसले नेकपा संसदीय दलको सदस्यता गुमाएको होइन र? 

भने पछि ओली ले बाजी हारे। 

संसद बैठक को पहिलो दिन अविश्वास प्रस्ताव दर्ता गर्दा प्रधान मंत्री को नाम दिँदा देउबा  नाम न देउ भन्छन भने प्रम प्रचंड नै बन्ने देखियो। कटुवाल प्रकरणमा प्रचण्डले थुप्रैलाई तर्साएकै हुन। नेपाली सेना कब्ज़ा गरेर राज्य सत्ता कब्ज़ा गर्ने प्रयासको रुपमा थुप्रैले बुझे। पार्टी भित्र वैद्य समुह्को प्रेशर थाम्न नसकेर त्यो कदम चालेका थिए होलान। तर त्यस एक कदमले प्रथम संविधान सभा नै क्षत बिक्षत पारिदियो। दुई महिना पछि उसै पनि रिटायर हुन लागेका कटुवाल लाई दुई महिना अगाडि फाल्ने अनावश्यक प्रयास नगरेको भए प्रथम संविधान सभाले निर्धारित समय मैं एउटा प्रगतिशील संविधान दिंदो हो। सन २००६ को अप्रिल क्रान्ति पछि अहिले सम्मको सबै भन्दा प्रतिगामी कदम नै त्यही कटुवाल प्रकरण थियो। नितान्त अनावश्यक कदम। 

जेल बस्न सक्ने, जंगल पस्न सक्ने, तर सत्ता चलाउन नसक्ने नेताजी हरु। 

ओली चंद दिनका पाहुना हुन। नेपाली कांग्रेस भित्र देउबा अहिले प्रधान मंत्री भयो भने महाधिवेशन ताका फाल्न गारहो हुन्छ भन्ने तबका ले जितिरहे जस्तो देखिन्छ। भने पछि नेका भित्र पुस्ता हस्तांतरण हुन लागेको हो त? 

देउबा ले बन्दिन भने जस्तो देखियो, उपेन्द्र यादव लाई ऑफर गरेका छैनन। ऑफर आए जसपा ले लिनुपर्छ। आफुले चाहेको संविधान संसोधन आफैले गर्ने। 

तत्काल लाई प्रचंड नै प्रधान मंत्री बन्ने जस्तो देखियो। 

ओली ठुलो पार्टी अध्यक्ष, दुई तिहाई वाला प्रधान मंत्री लाई यसरी प्रचंड ले पछारेको देख्दा दाद नै दिनुपर्छ। खेलाड़ी नै हुन। संसदीय अभ्यासमा पनि प्रखर देखिए। 

बहुदलीय लोकतंत्र लाई खतरा म देख्दिन। अर्को संसदमा कसैको बहुमत आउने संभावना छैन। दुई बर्ष चाहिं प्रचण्डले खाने भए। 



सीके राउत: एक आलोचना

सीके राउत जी। 

अपने प्रवास से शुरू कइली। नेपाल गेला के बाद भी अपने के लक्ष रहे जे १० साल पहले गृह कार्य करब। लेकिन अपने के बार बार जेल में ध के अपने के उ समयतालिका फ़ास्ट फॉरवर्ड क देल गेलै। अपने के आत्म जीवनी पढ़लि। अपने के विश्लेषण पढ़लि। बहुत सटिक। अपने के कहब जे नेपाल के भितर मधेसी के प्रति अतेक ज्यादा भेदभाव छै कि मधेस अलग देश के अलाबे औरो कोनो रास्ता नै छै। अपने के ओइ बात पर मनन नै कइली आ चाहे आजकल नै करै छि से बात नै छै। सिद्धांत और आदर्श एक चीज भेलै। लेकिन राजनीतिक रणनीति त भी कुछ होइ छै। नेपाल के भितर मधेसी के प्रति भेदभाव छै और ओकर समाधान छै संघीयता कहेवाला लोग सब के बात पर भी त मनन करे के पड़तै। करैत आ रहल छियै। लेकिन अपने के इ कथन जे मधेसी के प्रति बहुत ज्यादा भेदभाव छै तै से त असहमत कहियो नै भेलौं। दुर भविष्य में मधेस अलग देश भ भी सकै छै। आ चाहे नेपाल और भारत के राजनीतिक एकीकरण भी भ सकै छै। नेपाल के और दक्षिण एशिया के विगत २०० आ चाहे २,००० साल के नक्शा देखियौ। सदा गतिशील। 

लेकिन निकट भविष्य के आधार पर निर्णय सब लेबे के बखत छलै और अभी छै। मधेस प्रति भेदभाव छै लेकिन अभी के अवस्था में मधेस अलग देशके नारा प्रत्युत्पादक भ जाइ छै, तै किसिम के असहमति प्रकट करितो हम हर समय इ कहलि कि सीके राउत अगर कहै छै मधेस अलग देश त उ वाक स्वतंत्रता भेलै। शांतिपुर्वक अपन बात कोइ राखि सकैय। संविधान प्रदत अधिकार भेलै उ। लेकिन अपने के तंग करिते रहि गेल। 

भु-राजनीति देखियौ। भारत और चीन के बीच ओतेक ज्यादा टेंशन रहै छै लेकिन मधेस अलग देश के मुद्दा पर दुन्नु एक रहतै। कोनो भी हालत में नै होबे देतै। नेपाल एक से दु होबे के मतलब चीन एक से पाँच, भारत एक से २० के रास्ता पर चलनाइ शुरू। उ डर रहतै। और चीन और भारत के नेपाल के भितर चलै छै। सिर्फ चीन अथवा सिर्फ भारत से सीधा मुठभेड़ क के नेपाल के भितर आगे बढना संभव न। दुन्नु से एक्के बेर सीधा मुठभेड़ सही रणनीति नै रहै। त उ विश्लेषण क के खुद से मधेस अलग देश के नारा से हट के संघीयता के रास्ता पर अबिती त कतेक अच्छा होइतै? लेकिन अभी केपी ओली सन आदमी सब कहेवाला जे सीके राउत के जेल में ठुंस के ही सही मध्य मार्ग में ला के छोड़लि। 

बीपी कोइराला राजतन्त्र के आजीवन न छोड़लकै लेकिन नेपाली कांग्रेस अंततः गणतंत्र के लाइन पर अलै जे कि कोनो पार्टी महाधिवेशन से पारित लाइन न। तहिना संघीयता नेका और नेकपा के एजेंडा कहियो न। लेकिन नाक मुँह झाँपि के स्वीकार कलकै। राजनीतिक यथार्थ फेस कलकै। देखलकै पैर तले जमीन खिसैक गेल। माओवादी १० साल जनयुद्ध कलकै एक पार्टी शासन स्थापित करे के लेल लेकिन समाजिक राजनीतिक यथार्थ के अध्ययन क के सात पार्टी से मिललै। बहुदल मानले हइ। 

अभी आहाँ के लाइन हबे अगला चुनाव में १० लाख भोट लाबि। त जनता के इमानदारीपूर्वक स्पष्ट ढंग से कहियौ हमरा १० लाख भोट दिय ताकि हम पाँच साल हाथ पर हाथ ध के बैठ सकु। जै देश में संघीयता सिर्फ देखावटी छै और सब अधिकार अभी भी काठमाण्डु में केंद्र सरकार के पास छै, मतदाता डेढ़ करोड़, भोट खसाबेवाला एक करोड़ छै, जहाँ सबसे नमहर पार्टी ४५ लाख और दोसर पार्टी ३५ लाख भोट लाबै छै, और दुन्नु मधेस के अधिकार और अस्मिता के सख्त विरोधी होबे वहाँ अपने १० लाख भोट ला के कथि करबै? राजनीति के लक्ष सत्ता ही होइ छै। भोट दिय ताकि हम सत्ता में पहुँच के अपने के लेल काम करि। सेहे अनुरोध नै रहै छै? 

प्रथम प्रश्न त उठत आहाँ उ १० लाख भोट लबै कि न लबै? ओहु से पहले प्रश्न उठत राष्ट्रिय पार्टी भी बनबै कि न? आहाँ खुद चुनाव जितबै कि न? जितबै त कोन जगह से? जहाँ जम्मा एक करोड़ भोट के बात छै वहाँ १० लाख भोट लाबे वाला पार्टी या त विपक्ष में बैठत या त मिलीजुली सरकार बनावे के प्रयास करत। भाजपा छोट रहै त जनता दल से मिल के सरकार बनलकै। भाजपा के जनता दल से बहुत बात न मिलै छै। नेपाले में कांग्रेस कम्युनिस्ट मिल के पंचायत के गिरलकै। बाद में सात पार्टी और माओवादी तहिना मिल के राजतन्त्र के ख़तम कयलक। यथास्थिति के अध्ययन क के तेना रणनीति तय करे के होइ छै। 

दु नम्बर प्रदेश में कोन पार्टी के सरकार बनत आ चाहे दु नंबर भितर स्थानीय तह पर कोन पार्टी के सरकार बनत तहि से मधेसी के अधिकार, अस्मिता और समृद्धि के मुद्दा समाधान भ जतै से नै छै। अभी भी प्रमुख लड़ाइ केंद्र में छै। 

या त भ्रष्टाचार के मुद्दा पर लेजर फोकस क के कमसेकम मधेस के २२ जिल्ला में आंदोलन करू अन्ना हजाड़े और अरविन्द केजरीवाल जिका और तै २२ जिल्ला में १० लाख भोट न बल्कि स्वीप क के देखाउ। जेना दिल्ली स्वीप कलकै केजरीवाल। आ न त अइ बात के मानु कि जनता के लेल काम करे के लेल सत्ता में जाए के पड़बे करतै, १० लाख वाला पार्टी के लेल से रास्ता गठबंधन के रास्ता ही भेलै, और चुनाव के बाद के गठबंधन से ज्यादा फायदा चुनाव से पहले के गठबंधन से होइ छै, और मुद्दा के हिसाब से अपने के जनमत पार्टी से मिल्दोजुल्दो पार्टी जसपा ही भेलै, कियक त दुन्नु अपन पहिचान बनएले छै मधेशीके अधिकार और अस्मिता के मुद्दा के पकड़ि के। मधेस के २२ जिल्ला में ५०-५० सीट बाड़ी के लड़े के सोचु। तै आधार पर भी स्वीप कयल जा सकै छै। जसपा और जपा दुन्नु १०-१० लाख भोट अगर ललकै त केंद्र में दुन्नु पार्टी निर्णायक भ जतै। तै अवस्था में शायद केंद्र में केकरो बहुमत न रहत। 

समय भी त कम छै। एक साल में शायद स्थानीय चुनाव होतइ। दु साल में केंद्र के चुनाव। अभी आहाँ के पार्टी महाधिवेशन भी बाँकी हबे। फेसबुक पर देख रहल छि आहाँ बराबर दौड़ाहा में रहै छि और आहाँ के पार्टी के कार्यक्रम सब में काफी संख्या में लोग उपस्थित रहैय। सराहनीय बात छै। 

लेकिन जेना बहुत लोग कहैय ओली जेल में ठुंस के सीके के मध्य मार्ग पर ललकै तेना लोग इ न कहे जे सीके कहौ इ क देबौ उ क देबौ लेकिन हाथ पर हाथ ध के बइठल हउ, कहाँ गेलै १० लाख के रोजगारी? आ चाहे इ न कहे जे आब नेका, नेकपा, जसपा सबसे मिले चाहै छै आ पहले कहौ सब के जे म्याद गुजरि गेल औषधि छौ बलु। 

रणनीतिक गलती न करू। या त अन्ना हजाड़े और अरविन्द केजरीवाल वाला रास्ता पकडु आ १० न २० अथवा २५ लाख भोट लाबे के सोचु। आ न त जसपा के साथ चुनावी गठबंधन करू। से कहब।