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Monday, May 16, 2022

जनमत पार्टी के लिए शिक्षा चुनाव

सत्ता गठबंधन और राज्य संयत्र ने जनमत पार्टी को टार्गेट किया। वैसा दिखा। लेकिन फिर भी स्वीप नहीं किया जनमत ने वो तो बात है। अभी पुरा नतिजा सामने नहीं आया है लेकिन जितना आया है उससे दिख रहा है जनमत पार्टी ने खाता तो खोला लेकिन स्वीप नहीं किया। ये शिक्षा लेने का समय है। आतंरिक छलफल और विश्लेषण का समय है। 

इस चुनवा में चाहे जितना भी भोट लाती जनमत पार्टी राष्ट्रिय पार्टी नहीं बनती। राष्ट्रिय पार्टी बनने के लिए राष्ट्रिय चुनाव लड्ने होते हैं और तीन प्रतिशत भोट लाने होते हैं। वो बात केन्द्रीय संसद के चुनाव में पता चलेगा। 

जिस दिन पार्टी ने घोषणा किया कि केंद्र से किसी उम्मेदवार को कोइ पैसा नहीं मिलेगा सब अपना अपना व्यवस्था खुद करो और जितना निर्वाचन आयोग कह रही है सिर्फ उतना खर्चा करो उसी दिन पार्टी चुनाव हार गयी। अहिंसात्मक लोकतान्त्रिक चुनाव में पैसा बहुत बड़ा अस्त्र होता है। ये ठेकेदार नेता नेक्सस जापान में भी है और बड़ा कसके है। दुनिया में जो राजनीतिक पार्टी सबसे ज्यादा पैसा खर्चा करती है वो है चिनिया कम्युनिस्ट पार्टी। सारा पुलिस उसका। 

अभी जो खुल्लम खुल्ला भ्रष्टाचार होता है नेपाल में वहाँ घोषणा करना कि पैसा है ही नहीं वो तो हथियार डालने वाली बात हो गयी। बल्कि ऐसा हो सकता था कि हम सत्ता में आएंगे तो ठेकापट्टा पुर्ण पारदर्शी, पुर्ण डिजिटल किस्म से बाँटेंगे, लेकिन हमारे नजर में जो सबसे सक्षम ठेकेदार हैं वो ये दिख रहे हैं, तो वैसे लोगों के बीच जा के पैसा उठाना था पार्टी को। नहीं किया। गलती की। 

पढ़े लिखे लोगों की पार्टी है तो प्रत्येक पालिका में डिटेल बजेट पेश करना था। हमारे पालिका का वार्षिक बजेट इतना, हम पाँच साल इस कदर खर्चा करेंगे। उसी बात की तो प्रतिस्प्रधा है। 

स्थानीय चुनाव स्वीप न करने से पार्टी का राष्ट्रिय स्तर पर विस्तार के बात पर थोड़ा ब्रेक लग गया अब। लेकिन वो समस्या नहीं है। रविन्द्र मिश्र का पुर्ण सफाया और बालेन शाह के उदय से अब काठमाण्डु में और पहाड़ हिमाल में वैकल्पिक शक्ति की कमी नहीं रह गयी। जनमत ने अभी तक जहाँ जहाँ संगठन बनाया है सिर्फ वहाँ पैर ज़माने का प्रयास करे। 

अब शायद पार्टी अध्यक्ष डॉ सीके राउत को मुख्य मंत्री का उम्मेदवार घोषित कर प्रदेश चुनाव पर फोकस करना अच्छा होगा। चुनाव बाद में होता है। पहले पैसा का चुनाव होता है। अमेरिका में कहा जाता है Money Primary, अर्थात एक चुनाव वो भी हुवा। वो चुनाव तो शुरू हो चुका। प्रदेश सरकार का बजेट कितना? उसको आप पाँच साल कैसे खर्चा करेंगे? पुर्ण पारदर्शी, पुर्ण डिजिटल, और पुर्ण रूप से मेरिट के आधार पर आप ठेकापट्टा देंगे तो वैसे ठेकापट्टा पाने वाले ठेकेदार कौन सब दिख रहे हैं? उनसे पैसा माँगिए। और ठेकेदार का मतलब सिर्फ कंस्ट्रक्शन नहीं होता। 

बजेट कितना है? उसके आधार पर आपका वार्षिक कार्यक्रम क्या रहेगा? उसमें से निजी क्षेत्र को कितना काम दिजिएगा?  मेरिट के आधार पर ही ठेक्का देना पड़े तो किसको देने की संभावना ज्यादा है? उतना इनफार्मेशन तो रखना पड़ेगा। उनके बीच जाइए और फंडरेजिंग करिए। सब प्राइवेट में ही करते हैं। आप भी करिए। लेकिन सत्ता में आने के बाद ठेकापट्टा को पुर्ण डिजिटल, पुर्ण पारदर्शी रखिए, स्पष्ट मापदंड के आधार पर दिजिए। 

२०१४ के चुनाव में बिहार में नीतिश का सफाया हो गया। जनता समझदार होती है। जनता का कहना था आप तो प्रधान मंत्री पद के लिए लड़ ही नहीं रहे हैं। तो आप को भोट क्यों दें? २०१५ में भारी मत से फिर नितीश को जिताया। 

शायद जनमत पार्टी के लिए अगला कदम मधेस प्रदेश में अकेले सरकार बनाने का प्रयास होगा। मुख्य मंत्री का चेहरा आगे आना चाहिए। सबक सिख के चुनाव लड़ी तो जनमत प्रदेश चुनाव स्वीप करेगी। 

गठबन्धन के तरफ से लाल बाबु राउत और जनमत के तरफ से सीके राउत। उस अवस्था में जनमत अकेले बहुमत लाएगी। मेहनत किया तो दो तिहाई भी संभव है। वो चुनाव शुरू हो चुका। मनी प्राइमरी वाला चुनाव तो शुरू हो चुका। फंडरेजिंग किजिए। कसके किजिए। 

साथ में ही केंद्र का भी चुनाव है। दोनों लड़ना है। केंद्र का मुद्दा रहेगा कि प्रदेश सरकार के पास ताकत है ही नहीं। न प्रहरी न प्रशासन न बहुत ज्यादा बजेट। प्रदेश सरकार को न्यायोचित शक्ति प्रदान करने के लिए केंद्र में जा के संविधान संसोधन करना है। उसके आधार पर केंद्र के लिए भी मत दिजिए। 

दो तिहाइ वाला वेभ क्रिएट करिए तो धाँधली करने वालों का हिम्मत ही फेल हो जाएगा। 



Tuesday, September 30, 2014

State And Local Elections Before Monsoon 2015

It is imperative that the constitution is promulgated on time, and the state and local elections are held before monsoon 2015. The vacuum at the local level has been a great disservice to the country and its peoples.

Because federalism is still as controversial as ever, it is likely the geographical boundaries might be agreed to, but it might be best to leave the business of naming the states to the duly elected state legislatures. I have seen too many hyphens in some of the proposed names.