३० साल पंचायत चला तो ३० साल लुतंत्र भी तो चला। लेकिन अब बस। बहुत हुवा। पंचायत ख़त्म हुवी लेकिन राप्रपा रही, अभी भी है। एक सीट तो जिती है। उसी तरह कांग्रेस कम्युनिस्ट भी रहेंगे। लेकिन राप्रपा के साइज में रहेंगे। छोटी मोटी पार्टी बन के रहेंगे।
किसान आन्दोलन के १० माँगे इस देउबा सरकार से पुरा हो ही नहीं सकता। न इमान है। दिल साफ नहीं है। जनता का सेवा करने पद पर जाते हैं वो सोंच है ही नहीं। न लुइर। कनपट्टी पे सिनुर वाली बात। जिस तरह ४७ साल वाला संविधान किसी को दफनाने का भी मौका नहीं मिला उसी तरह ये संविधान भी टांय टांय फिस।
लोकतंत्र, गणतंत्र, संघीयता, समावेशिता पर कोनो कोम्प्रोमाईज़ नहीं। लेकिन सच्चा संघीयता। सर्बभौमसत्ता जनता में है। जनता वो ताकत संविधान सभा को देती है जो संसद का भी काम करती है। पहला काम तो करना होगा न्यायपालिका का पुनर्गठन। संसद चाहे तो देश के प्रत्येक न्यायधीश को पद से हटा सकती है। रवाण्डा में हुवा। एक ही दिन ५०० न्यायधीश का पद ख़तम। उस स्तर पर कुछ करना होगा। बल्कि उसमें से २०० को फिर से पद पर लाना पड़े, फिर से शपथ ग्रहण करवाना पड़े वो मंजुर।
नेपाल सेना नेपाली जनता से उपर नहीं है। नेपाली जनता चाहे तो नेपाल सेना को विसर्जन कर सकती है। कोस्टा रिका में कोइ सेना नहीं। मैं उसके पक्ष में नहीं हुँ। लेकिन ये स्पष्ट बात है कि जनता सेना से उपर है। गृह युद्ध तो कबका खत्म हुवा। अब तो सेना को फिर से ३०,००० पर ले जाओ। संविधान सभा वो आदेश दे सकती है। और फिर रक्षा मंत्री को वो कार्यान्वयन करनी होती है।
दो तिहाई सेना, दो तिहाई प्रहरी, और दो तिहाई कर्मचारी की घर वापसी को ही संघीयता कहते हैं। क्यों कि संघीयता में कम पैसे में ही काम हो जाता है। एक साल तलबी विदा दे दिया जाए कि उस एक साल के भितर निजी क्षेत्र में जाओ कोइ काम ढुंढो।
जितने निकलेंगे सब के लिए निजी क्षेत्र में पहले से दोबर तलब वाला काम मिलेगा। ख़ुशी ख़ुशी निकलेंगे।
किसान आन्दोलन तो एक चुनौती है ,कर सकते हो तो कर के दिखाओ। दिवाकालीन लोकमार्ग जाम। बस्ती बस्ती में जुलुस, सभा, बैठक। राणा शासन ख़त्म करने पहले मधेस ही तो जागी थी। पहाड़ में भी पहुँचेगी किसान आन्दोलन।
४६ साल के थके चेहरे।
(ये हिन्दी नहीं मधेसी भाषा है।)